सन्यासी किसे कहते हैं।
जो बीती हुई बातों का स्मरण नहीं करता और अब प्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं करता, जो हृदय में मेरू पर्वत के समान स्थिर होता है, और जिसके अंतःकरण में ,”मैं और मेरा” का विचार भी कभी नहीं उठता वह नित्य सन्यासी है ऐसे समझ लो । जिसके मन की वृत्ति इस प्रकार की हो जाती है, उसकी विषय संबंध इच्छाएं भी लोप हो जाती है और तभी उसको आनंदपूर्वक अखंड आत्म सुख की प्राप्ति हो जाती है। ऐसे मनुष्य को घर छोड़ने की कुछ जरूरत नहीं होती क्योंकि उनके मन में यह भावना पूरी तरह रहती है कि इन सब वस्तुओं के साथ मेरा लेशमात्र भी संबंध नहीं है। तात्पर्य यह कि जब मन से समस्त कल्पनाएं लुप्त हो जाती है, तभी सन्यास संभव हो सकता है। इस प्रकार कर्म त्याग तथा कर्मयोग दोनों एक ही है।
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