गीता का ज्ञान
जिस प्रकार पवन से पानी में तरंग पैदा होती है उस समय किसे उत्पन्न हुआ बतलाओगे ? फिर पवन के रूक जाने पर पानी स्थिर हो जाता है तब किस का नाश माना जायेगा । ठीक उसी प्रकार देह के एक ही रहने पर आयु के अनुसार उसमे भी परिवर्तन होता है इस शरीर में बालकपन, युवावस्था व वृद्धावस्था आती है पर ऐसे परिवर्तन से देह का नाश नहीं होता । इसी प्रकार आत्मा के भी असंख्य शरीर बदलते रहते है ।
दूध और पानी मिलाकर रखे हो तो भी जैसे राजहंस उसे अलगकर देता है , अथवा जैसे चतुर व्यक्ति मिश्रित धातु को तपाकर शुद्ध 'सुवर्ण को पृथक कर लेते है अथवा भूसा और अन्न इकट्ठा होने पर भी वायु द्वारा उसे पृथक कर लिया जाता है, उसी प्रकार विचार करने से प्रपंचजाल का सहज में नाश हो जाता है और ज्ञानी के लिए एक यथार्थ तत्व ब्रह्मा ही शेष रहता है।
जिस प्रकार स्वप्न की बातें स्वप्न में ही वास्तविक जान पड़ती है परन्तु जग जाने पर उनका कुछ नही रहता । जिस प्रकार मनुष्य की छाया पर किया गया शस्त्र – प्रहार शरीर को नही लगता अथवा जिस प्रकार पानी से भरा बर्तन औंधा कर देने से उसमे झलकने वाला सूर्य बिम्ब नष्ट होता जान पड़ता हैं पर इससे वास्तविक सूर्य को कुछ भी नाश नही होता । ठीक उसी प्रकार शरीर का नाश होने पर भी आत्मा का नाश कभी नहीं हो सकता ।
जिस प्रकार सूर्य का उदय और अस्त अपने आप नित्य हुआ करता है, उसी प्रकार जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु होगी ही और जिसका मरण हुआ वह जन्म लेगा ही | यह घटमाला निरन्तर चालू रहती है।
गाय का दूध उत्तम होता है पर कितनी ही बीमारियों में उसे वर्जित माना गया है । अगर नवीन ज्वर के रोगी को वह दूध दिया जाय तो वह विष तुल्य हो जाता । इसी प्रकार जो कोई मनुष्य दूसरे के धर्म का आचरण करता है तो उसके हित का नश होता है|
जिस प्रकार सूर्योदय होने पर अनेक मार्ग दृष्टिगोचर होते है पर उन सब मार्गों पर मनुष्य एक साथ तो चल नहीं सकता । इसी प्रकार जो ज्ञानी है, वे पदार्थ का विचार करके उसमें से शाश्वत ब्रह्मा सम्बन्धी ज्ञान को ही स्वीकार करते है।
जैसे दीपक की ज्योति छोटी सी होने पर भी बहुत सा प्रकाश देती है उसी प्रकार यह सद्बुद्धि अल्प हो तो भी उसे नगण्य नही समझना । विवेकशील सदा इस सद्बुद्धि की ही इच्छा करते है, क्यों कि सद्बुद्धि जगत मे अति दुर्लभ है।
जिस प्रकार पारस मणि अन्य पत्थरों की तरह अधिक संख्या में नहीं मिलती अथवा अमृत का एक बिन्दु भी महा सद्भाग्य से मिलता है उसी प्रकार ईश्वर के प्राप्ति में पर्यवासान (अन्त) पाने वाली सद्बुद्धि अत्यन्त दुर्लभ है।
हे अर्जुन ! तू योगयुक्त होकर फल की इच्छा को त्याग कर मन से कर्म कर आरंभ किया हुआ कार्य सफल ही गया तो उससे फूल नहीं जाना और जो सिद्ध न हुआ अपूर्ण ही रह गया तो उसके लिए शौक भी नहीं करना काम करते हुए जो वह पूरा हो गया तो ठीक ही है परंतु यदि विध्न पड़ने से अधूरा रह गया तो भी ईश्वर इच्छा को बलवान समझ कर उसे अच्छा ही मानना । जितना काम हो सके उसे ईश्वरार्पण करना । इस प्रकार करने पर फिर पूर्णता या अपूर्णता मानने का कुछ प्रयोजन ही नहीं रहता । कर्तव्य पालन करते हुए जो अच्छा या खराब परिणाम निकले उसके प्रति मनोवृति को समान रखना, इसी को ज्ञानी जन योग की स्थति मानते है I
जिस प्रकार दीपक की ज्योति पवन से बुझ जाती है, उसी तरह अविचार के कारण स्मृति अर्थात् आत्मज्ञान का नाश होता है ।
जिस प्रकार दीपक की ज्योति पवन से बुझ जाती है, उसी तरह अविचार के कारण स्मृति अर्थात् आत्मज्ञान का नाश होता है ।
शरीर में से प्राण निकल जाने पर जैसे देह मुर्दा हो जाती है वही स्थिती बुद्धि नष्ट हो जाने पर जीव की होती है।
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