स्वधर्म आचरण महिमा
जहां चित में सदा प्रसन्नता रहती है वह सांसारिक दुखों का प्रवेश नहीं होताl
जिस प्रकार कछुआ अपने फैलाए अंगों को स्वेच्छा से स्वयं ही भीतर खींच लेता है उसी प्रकार जिस की इंद्रियां स्ववस तथा आज्ञा पालक होती है उसकी ही बुद्धि स्थिरता को प्राप्त होती है ।
जो परमात्मा परायण रहता है, पर जो बाहर से लोकाचार के अनुसार व्यवहार करता है, जो इंद्रियों का दमन नहीं करता पर साथ ही यह भय भी नहीं रखता कि विषय मेरे लिए बाधक होंगे, जिस-जिस प्रसंग में जो जो कार्य सामने आता है उनका त्याग नहीं करता, कर्मेंद्रियों को स्वाभाविक कर्मों से नहीं रोकता पर उनके विकारों के वश नहीं होता । वह वासना से व्याकुल नहीं होता और उनका मन मोह की बाधा से नहीं रुकता । जिस प्रकार कमल पत्र रात दिन पानी में रहते हुए भीगता नहीं, उसी प्रकार वह संसार में रहकर अन्य लोगों जैसा ही जान पड़ता है जिस प्रकार जल के संपर्क से सूर्य बिम्ब पानी में ही हो ऐसा लगता है उसी प्रकार ऊपर से देखने पर वह साधारण लगता है पर उसकी आत्मिक स्थिति को कोई सहज में जान नहीं सकता। जो व्यक्ति ऐसे लक्षणों से युक्त हो और निःस्पृह हो, उसी को मुक्त समझ, वही योगी है और जगत में स्फूर्ति का पात्र है।
इस जगत में जब कर्म रहित होना असंभव है, तो फिर शास्त्र के विपरीत क्यों चलना ? इससे जो कर्म उचित हो और समयानुसार करने पड़े उसका तू निष्काम बुद्धि से कर । एक अन्य आश्चर्य यह है कि निष्काम बुद्धि से किए गए कर्म मनुष्य को सहज ही सांसारिक कर्मपास से युक्त कर देते हैं । जो मनुष्य अपने अधिकार के अनुसार स्वधर्म आचरण करता है, वह उस आचरण के प्रभाव से ही निश्चित रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है।
स्वधर्म अनुसार आचरण करना ही नित्य यज्ञ है। जो इस प्रकार आचरण करता है उसे पाप नहीं लग सकता। मनुष्य जब स्वधर्म को त्याग करके दुष्कर्म में प्रवृत्त होता है, तभी जन्म मरण के चक्र में फंसता है । इसलिए जो स्वधर्म अनुसार कर्म करने के रूप में अखंड यज्ञ करता है उसको वह कर्म बंधन रूप नहीं होता।
(स्त्रोत -ज्ञानेश्वरी गीता )
जिस समय ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना की थी तो उसमें उन्होंने प्राणियों तथा उनके द्वारा आचरण किए जाने वाले धर्मों को साथ-साथ उत्पन्न किया था। परंतु धर्म के गूढ़ होने के कारण मनुष्य उनको समझ नहीं सके। इसलिए उन्होंने ब्रम्हाजी से प्रार्थना की -"हे देव हमारे लिए इस संसार सागर से पार हो सकने का उपाय क्या है? तब ब्रह्मा ने कहा "तुम्हारे वर्णाश्रम के अनुसार जिस धर्म को मैंने आरंभ में ही निश्चित किया है तुम उसी के अनुसार आचरण करोगे तो तुम्हारे मनोरथ सहज मैं पूर्ण होगे । तुम केवल बाहरी दिखावे के लिए व्रत नियम आदि मत करना, उपवास करके शरीर को कष्ट मत देना और तीर्थयात्रा आदि का श्रम भी मत करना। योगादि साधन और सकाम आराधना तथा मंत्र तंत्र अनुष्ठान यदि करो भी तो अन्य किसी देव की उपासना कभी मत करना। तुमको अपने वर्णाश्रम नियमों के अनुसार जो धर्म बताया गया है उसी का तुम सहज भाव से आचरण करते रहो। जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री निष्काम बुद्धि से अपने पति की सेवा करती है उसी प्रकार अपने धर्म का तुम निष्काम भाव से आचरण करो स्वधर्म का आचरण यही एकमात्र तुम्हारा यज्ञ है ।यदि तुम स्वर धर्मानुसार चलोगे तो वह कामधेनु के समान फलदायक होकर तुम्हारा परित्याग कभी नहीं करेगा।
अन्न मैं से प्राणीमात्र की उत्पत्ति होती है और वर्षा से सब जगह अन्न पैदा होता है ।वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ की उत्पत्ति कर्म से होती है ।कर्म की उत्पत्ति वेद रूपी ब्रह्मा में से और वेद की उत्पत्ति परमात्मा में से होती है। परंतु कर्म रूपी जो यज्ञ है उसमें वेद रुपी ब्रह्मा सदा निवास किया करता है।
(स्त्रोत -ज्ञानेश्वरी गीता )
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