वेदव्यासजी के जन्म की कथा
एक बार पराशर ऋषि
तीर्थ यात्रा करते हुए यमुना तट पर आ गए वहां मल्लाह भोजन कर रहा था उससे यमुना पार पहुँचाने के लिए कहा, उस निषाद ने मत्स्यगंधा
पुत्री से कहा हे पुत्री यह दृश्यन्ती के पुत्र तपस्वी यमुना पार होना चाहते है। अब इन्हें नाव ट्वारा तुम ही पार पहुंचा
दो । यह सुनकर उसने नाव मे बिठा लिया और पार ले जाने लगी । तब उस पर मोहित होकर पराशरजी
ने उसका दाँया हाथ पकड़ा।
मत्स्यगंधा यह देखकर हँस पड़ी और बोली हे ऋषिजी आप ऐसा निन्दित
कर्म क्यों कर रहे हो ।आप तो वशिष्ठजी के उतम कुल से उत्पन्न हुए हो । फिर मैं निषाद
कन्या आपके साथ मेरा संयोग कैसे हो। इतना सुनकर पराशरजी ने उसका हाथ छोड़ दिया । नदी
पार पहुंच गये। किंतु कामदेव ने
उन्हें विवश कर दिया । तब
उन्होंने उसे पकड़ लिया । काँपती हुई
मत्स्यगंधा ने कहा हे ऋषिदेव मैं दुर्गन्ध युक्त काले रंग की निषाद पुत्री हू और आप योगी श्रेष्ठ है अतः कांच और सोने का संयोग भला कैसे हो और यह भी शास्त्रों की आज्ञा है कि भोग रात को करें। आप यदि चाहते भी हैं तो रात होने दीजिये ।
यह सुनकर
पराशरजी ने अपने योग द्वारा दिन को ही रात्रि के समान अन्धकार कर दिया ।तब उसके साथ
भोग किया । तब लज्जित तथा आतिश्चत होकर वह बोली हे योगिराज अब आप तो चले जायेंगे मेरा
क्या होगा आपका वीर्य अमोघ है मुझे गर्भ रह गया तो फिर क्या होगा । यह सुनकर ऋषि बोले
है बाले इस समय तो तू मेरे साथ संभोग कर अपनी कामना कह मैं पूर्ण करूँगा ।मेरी आज्ञा
पूर्ण करने के कारण तू सत्यवती कहलायेगी ।
तब वह बोली मेरे इस कर्म को माता पिता आदि
कोई भी न जान सके मेरा कन्या धर्म भी न जाय और आपके समान पूर्ण तपस्वी शक्तिमान पुत्र
भी प्राप्त हो । पराशरजी बोले सुनो तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी और तेरे गर्भ
से विष्णु का अंश तेजस्वी यशस्वी पुत्र होगा इतना कहकर पराशरजी ने यमुना स्नान किया
फिर चले गये सत्यवती ने समय आने पर सूर्य
समान महा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया, बालक ने उत्पन्न होते ही माता से कहा हे माता जी
जब भी तुम्हें कोई काम पड़े तू मुझे याद करना मै झट ही आपके
पास पहुंच जाऊंगा इतना कहकर और प्रणाम करके व्यासजी तप करने चले गए । सत्यवती पुत्र स्नेह से कातर होकर पिता के पास
पहुंची इधर उस बालक ने भी तपस्या पूर्ण की फिर वेदों की शाखाओं का विभाग किया इसी कारण इनका नाम वेदव्यास जी प्रसिद्ध हुआ । उसके बाद व्यास जी तीर्थ यात्रा करने लगे। सभी
तीर्थों को तथा पिंड दान आदि करके शिवलिंग के विषय विचार करने लगे कि कोई ऐसा
सिद्धिदायक लिंग हो जिसकी आराधना द्वारा सब विद्याएँ प्राप्त करके मैं पुराण रचना की शाक्ति
पालूँ ।इस विचार में वे ध्यान में लग गये। थोड़े समय के बाद उनका ध्यान खुला और बोले
मुझे मालूम हो गया कि धर्म अर्थ काम मोक्ष देने वाले इस अतिमुक्त महाक्षेत्र में मध्येश्वर
लिंग है। इनके समान काशी भर में और कोई लिंग नहीं हैं। फिर वे उसकी पुजा में लग गये
फिर उनको शंकर जी दर्शन हो गये।उन्होने कहा कि मैं ही तुम्हारे कंठ मे स्थित होकर इतिहास
एवं पुराण आदि निर्मित करूँगा ।
इस प्रकार पराशरजी का सत्यवती से संयोग हुआ I फिर शान्तनु राजा को सत्यवती प्राप्त
हुई इनमें किसी प्रकार की शंका मत करो । यह रहस्यमयी कथा भी पुण्यदायक है । इसके
पढ़ने वह सुनने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं।
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