Thursday, 19 October 2017

तीनों देवो की आयु का वर्णन



तीनों देवो की आयु का वर्णन  




पन्द्रह निमेष(पलक झपकने में लगने वाला समया ) = काष्ठा
तीस काष्ठा =  एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट )
तीस मुहूर्त =  एक दिन रात ( चौबीस घंटे )
पन्द्रह दिन रात = एक पक्ष ( शुक्लपक्ष, पितरो का दिन ) ,  (कृष्ण पक्ष, पितरो की रात )
दो पक्ष = एक महिना
छः महिने = एक अयन ( दाक्षिणायन , देवताओं कीरात ) ( उत्तरायण , देवताओं का दिन)
दो अयन = मनुष्यों का एक वर्ष
मनुष्यों का एक वर्ष =  देवताओं का एक दिन रात  
मनुष्यों के तीन सौ साठ  वर्ष =  देवताओं का एक वर्ष ( इस वर्ष से युगोकी गणना की जाती है )

चार युग होते है।
(1) सतयुग
(2) त्रेतायुग
(3) द्वापर युग
(4) कलियुग 

( 1) सतयुग    चार हजार वर्ष + सन्ध्या चार सौ वर्ष + संध्यांश चार सौ वर्ष  = 4800

( 2) त्रेता युग।  - तीन हजार वर्ष + सन्ध्या तीन सौ वर्ष + संध्याश तीन सौ वर्ष = 3600

( 3) द्वापर युग दो हजार वर्ष + सन्ध्या दो सौ वर्ष + संध्याश दो सौ वर्ष = 2400

( 4) कलियुग एक हजार वर्ष + सन्ध्या सौ वर्ष + संध्यांश सौ वर्ष = 1200

चारो युगों का बारह हजार वर्षों का प्रमाण होता है। ( चतुर्युग )

एक हजार चतुर्युग  = एक कल्प  ( इसमें 14 मनु होते हैं)
इकहतर  चतुर्युग = एक मन्वंतर
एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन
जब आठ हजार वर्ष बीत जाते है तो ब्रह्म का एक युग हो जाता है।
एक हजार युग का एक सवन होता है।
जब तीन हजार सवनों का समय बीत जाता है ब्रह्मा की आयु  पूर्ण हो जाती है। 



इसी प्रकार
ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयु = विष्णु का एक दिन 


विष्णु की सम्पूर्ण आयु = रुद्र का एक दिन 



जब रुद्र की आयु  पूर्ण होती है तब शिव के मुख से एक ऐसा श्वाँस प्रकट होता है जिसमें उनके इक्कीस हजार छः सौ दिन और रात होते है। उनके छः उच्छवास और निश्वास का एक पल और आठ पल की एक घड़ी तथा साठ घड़ी का एक दिन होता है। शिव के उच्छवास निश्वास अर्थात  भीतर बाहर श्वास लेने की संख्या नहीं है । इसी कारण शिव का उत्थान अक्षय है।





  

Tuesday, 17 October 2017

पुराणों की उत्पति (PURANO KI UTAPATI)



पुराणों की उत्पति

  
यह वृतान्त व्यासजी के पुत्र सूतजी ने ऋषियो को सुनाया था ।
पुराण क्यों हैँ ? श्वेत कल्प के समय वायु देव ने जो कुछ कहा था उन्ही शब्दों तथा अर्थों से युक्त न्याय से पूर्ण शास्त्रो के अर्थों से शोभित यथा क्रम ही पुराण कहे जाते हैं चार वेद ,छः शास्त्र  मीमांसा ,न्याय ,धर्म शास्त्र,सभी पुराण इत्यादिको में चौदह प्रकार की विद्याए है। फिर आयुर्वेद ,धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थशास्त्र ये चार उन चौदहों में युक्त कर देने से विद्या अठारह प्रकार की हो जाती है। इन अठारह विद्याओं के उत्पादक भगवान शंकर है। 

         संसार को बनाने के लिये प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न किया और ये अठारह विद्याएँ ब्रह्मा को प्रदान की , ब्रह्मा की रक्षा के लिए विष्णु को शक्ति प्रदान की विष्णु जी तो ब्रह्मा की रक्षा करने वाले मध्य पुत्र हैं। ब्रह्माजी ने अठारह विद्याये पाकर पुराणों का विस्तार किया ।फिर ब्रह्माजी के चारों मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए , उसके बाद अन्य सभी शास्त्र पैदा हुए । 
        इन पुराणों को स्वयं ब्रह्मजी प्रकट करने वाले है । अतः इनका पढ़ना समझना पृथ्वी के सभी लोगों के लिए कठिन था । यह देखकर परम कृपालु शंकरजी की प्रेरणा पाकर स्वयं विष्णु द्वापर की समाप्ति के समय व्यास रूप मे अवतरित हुए । इन्होने ही वेदों का विभाग करके शास्त्रों को संक्षेप रूप मे बनाया ।इसी प्रकार सभी द्वापर युगो के अन्त मे विष्णु व्यास रूप मे प्रकट होकर वेदादि विभाग आदि आदि क्रिया करते है। फिर नवीन पुराणों की रचनाए किया करते है। 
       इस द्वापर की समाप्ति में सत्यवती पुत्र कृष्ण द्वैपायन नाम से व्यासजी प्रकट हुए है। वेदों को आपने चार भागों में विभक्त किया है। इसलिये आपका नाम वेद व्यास प्रसिद्ध हुआ है। फिर सामान्य रूप से पुराण रचना की है। संक्षेप में सभी पुराणों के चार लाख श्लोक रचे । जब तक पुराणों को न पढ़ा जाय तब तक वेद उपनिषद वेदो के अङ्ग पढ़ने में कुछ भी ज्ञान नहीं होता । पुराण संख्या अठारह हैं। जैसे कि  ब्रह्मा, पद्म, विष्णुजी, शिव,भागवत, भविष्य, नारद,मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मावैवर्त, लिंग,वाराह, कूबामन,र्म, मत्स्य, गरुण,   ब्रह्माण्ड , स्कन्ध इस प्रकार ये अठारह पुराण है।

Friday, 13 October 2017

ओंकार का क्या महत्त्व है ( WHAT IS ONKAR (ॐ ))



प्रणव पद्धति  


             एक बार पार्वती ने शिव से कहा कृपा करके मुझे बताइये प्रणव कैसे प्रकट हुआ, इसकी कितनी मात्रा है और वेद के आदि मे यह कैसे कहा जाता है। इसके कितने देवता है, वेदादि की भावना किस प्रकार की जाती है और उसमे कितने प्रकार की क्रिया है तथा इसकी क्या व्यापकता है इसकी कितनी कलाये है और इसमें पंचात्मकता क्या है। इसके वाच्य वाचक का सम्बन्ध और स्थापना किस प्रकार का है। और इसका क्या विषय है। इसका सम्बन्ध क्या है, प्रयोजन क्या है। और इसका उपासक उपासना का स्थान, उपास्य वस्तु, उपासना का फल ,अनुष्ठान विधि ,पूजा का स्थान मण्डल ,उनके ऋषि और व्यास की विधि का क्या क्रम हैं यह सब बताइये । तब शिवजी ने कहा वो इस प्रकार है।
 
           
                इसके श्रवण मात्र से जीव शिव के समान हो जाता है जो प्रणव का अर्थ जान लेता है जानो वह मेरे ज्ञान को जान गया । प्रणवात्मक मंत्र सब मंत्रों का बीज है और वही बीज  वृक्ष के समान सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और बहुत स्थूल ,वेद का आदि वेद का सार और मेरा स्वरूप वह तीनों गुणो से परे , सर्वज्ञ और सबका कर्ता है ।       प्रणव अथार्थ  यह एक अक्षर का मंत्र ऐसा है जिसमें सर्वगत शिवजी सर्वथा ही विद्यमान है और जगत की यह समस्त वस्तुएं गुणमयी है जो उद्यान के संयोग से सब कुछ विराट रूप स्थावर जगंमात्मक दिखाई पड़ती है। इस प्रकार यह सब कुछ प्रणव का अर्थ ही है यह एक ही अक्षर ब्रह्मा और सब अर्थों का साधक है इसी  ऐसे आकार युक्त प्रणव से शिवजी ही सर्वप्रथम जगत के निर्माण कर्ता है। मुमुक्ष ही इस निर्विकार परमेश्वर प्रणव को जानेंगे । यही सब मंत्रों का शिव मणि है और इस ओंकार  को ही मैंाशी में प्राण त्यागने वालों को देता हूँ हे अम्बके पहले मैं  इसी प्रणवोद्वार का वर्णन करताहूं जिसकी जानकारी होने मात्र से परम सिद्धि प्राप्त होती है।
        इस ओंकार की प्राप्ति के लिए सबसे पहले कला का उद्धार करे । पहले आकार के आश्रित निबृत कला का उद्धार करे फिर उकार में ईधन कला का मकार में काल कलाका, नाद में दण्ड और बिन्दु में ईश्वर कला का उद्वार करे । इस प्रकार पंचवर्ण रूप प्रणव का उद्वार होता है। यह तीन मात्रा और विन्दु नादात्मक का जाप तो महामुक्ति दायक है । 
        ब्रह्मा से लेकर सब प्राणियो तक यह प्रणव ही सबका प्राण है और उकार मकार के क्रम से इसकी यह तीन मात्रायें हैं और फिर यही ॐ हो जाता है। यह ॐ वेदों के आदि  कहा जाता है और वह  ओंकारात्मक भी मैं ही हूँ इसी महान बीज के आकार के रजोगुण से ब्रह्मा और उकार जो उसकी प्रकृति योनि हैं उससे सत्युगण के पालन करने वाले हरि और मकार पुरूष वीज  तमोगुण से संहार कर्ता शिव उत्पन्न होते हैं तथा जब इन साक्षात महेश्वर देवका तिरोभाव होता है। जो विन्दु रूप हैं और सब पर कृपा करने के लिए वही नाद रूप भी है।      जब ध्यान में बैठे तब इन्ही नाद रूप शिव को मस्तक में विचार कर वहाँ ध्यान करे ! क्योंकि यह पर से परे और मंगल रूप है। यही सर्वज्ञ,सत्य के कर्ता, सर्वेश, निर्मल अविनाशी अद्वैत और परब्रह्मा हैं। वही आकार की अपेक्षा से  व्यापक और आकर की अपेक्षा से ओंकार रूप में सब में व्यापक और उकार के नीचे के भाग में व्याप्त है। इस प्रकार की भावना करे । इसी प्रकार इन अनारादिक पाँच वर्णो में ब्रह्मा के स्वरूप को देखे । सद्य, बाममेव, घोर,पुरुष, एशान । यह क्रम से मेरी ही मूर्ति हैं।