Friday, 17 November 2017

सन्यासी किसे कहते हैं।

न्यासी किसे कहते हैं 


                    जो बीती हुई बातों का स्मरण नहीं करता और अब प्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं करता, जो हृदय में मेरू पर्वत के समान स्थिर होता है, और जिसके अंतःकर में  ,मैं और मेरा का विचार भी कभी नहीं उठता वह नित्य सन्यासी है ऐसे समझ लो जिसके मन की वृत्ति इस प्रकार की हो जाती है, उसकी विषय संबंध इच्छाएं भी लो हो जाती है और तभी उसको आनंदपूर्वक अखंड आत्म सुख की प्राप्ति हो जाती है ऐसे मनुष्य को घर छोड़ने की कुछ जरूरत नहीं होती क्योंकि उनके मन में यह भावना पूरी तरह रहती है कि इन सब वस्तुओं के साथ मेरा लेशमात्र भी संबंध नहीं है तात्पर्य यह कि जब मन से समस्त कल्पनाएं लुप्त हो जाती है, तभी सन्यास संभव हो सकता है इस प्रकार कर्म त्याग तथा कर्मयोग दोनों एक ही है

Wednesday, 15 November 2017

ज्ञानी जन के भ्रष्ट होने के कारण

 ज्ञानी जन के भ्रष्ट होने के कारण 
                     दूध और खांड यह दोनों पदार्थ मीठे है, पर कृमि की व्याधि वाले के लिए वे अहितकर ही है। इस पर भी अगर हल उनका सेवन करें तो परिणाम मे वे उसके लिए दुखद ही सिद्ध होंगे क्यो कि जो कार्य अन्य के लिये उचित पर अपने लिये अनुचित हो तो उसे कभी नहीं करना, स्वधर्म का आचरण करते हुए यदि कभी अपना प्राण भी देना पड़े तो भी वह दोनों लोकों में श्रेष्ठ समझा जाता है। 
                      अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा हे  देव ज्ञानी भी स्थित भ्रष्ट होकर गलत रास्ते पर चले जाते है इसका क्या कारण है? वे सर्वज्ञ होने से अच्छी तरह जानते है क्या छोड़ देने योग्य और क्या ग्रहण करना चाहिए तो भी वे परधर्म का आचरण क्यों करते है?  
                      भगवान श्रीकृष्ण बोले हृदय मैं रहने वाले ये काम और क्रोध ही मनुष्य को पाप में प्रवृत्त करने वाले हैं उनमें दया का अंश लेश मात्र नहीं होता, ज्यादा क्या कहूं अज्ञानी के लिए यह साक्षात यम है यह काम और क्रोध, द्रव्य भंडार पर बैठे हुए नाग, विषय गुफा में रहने वाले बाघ, भजन मार्ग पर आक्रमण करने वाले चाण्डाल दस्यु है फिर वे देव रुप किले के प्रचंड पाषाण और इंद्रिय रूपी ग्राम के गढ़ रूप हैभ्रान्ति और अज्ञान आदि उत्पन्न करने में ये विशेष प्रबल होते हैं यह आसुरी संपत्ति का अंग होने के कारण रजो गुण संपन्न होते हैं और अविद्या के आधार पर ही  उन का निर्वाह होता है उनका मूल यद्यपि रजोगुण में होता पर तमोगुण के यह अत्यधिक प्रिय है इसलिए तमोगुण ने उनको अपना सर्वस्व (प्रमाद और मोह अर्पण) किया है वे ीवन के शत्रु है, इस मृत्यु नगर में उनका भरपूर आदर सत्कार किया जाता है।  
                             जिस प्रकार सर्प चंदन के वृक्ष से लिपट जाता है वैसे ही ज्ञान काम क्रोध से सदैव आवृत रहता है यद्यपि ज्ञान स्वयं शुद्ध है, पर वह काम क्रोध से प्रायः आच्छादित रहता है, इसी से काम क्रोध महा बलवान बैठे हैं इसलिए मुमुक्षु व्यक्ति को पहले काम क्रोध को जीतकर तत्पश्चात ज्ञान प्राप्त करना चाहिए पर इन काम क्रोध को जीतना यह सबसे पहली कठिनाई है, क्योंकि उन्हें जीतने के लिए जो साधन काम में लाए जाते हैं उन्हीं को सहायता पहुंचाने लगते हैं यह ऐसा ही होता है कि आग को बुझाने को लकड़ी डाली जाए और वह और अधिक भड़कती है